बड़े डाल-डाल तो हम छोटे पात-पात
क्या हम-आप जैसे सामान्य निवेशक सही स्टॉक्स के चयन में लंबी-चौड़ी टीम के साथ काम कर रहे किसी म्यूचुअल फंड के कम से कम एमबीए पढ़े फंड मैनेजर की बराबरी कर सकते हैं? शायद नहीं। लेकिन म्यूचुअल फंड में होने के नाते उसकी जो मजबूरियां हैं, हम उनसे मुक्त भी हैं। स्कीम का एनएवी (शुद्ध आस्ति मूल्य) बराबर बनाकर रखना। निवेश निकालने वाले कॉरपोरेट निकायों व बड़े निवेशकों की मांग पूरी करना। सबसे बड़ी मुश्किल म्यूचुअल फंड मैनेजर की यह होती है कि वो स्मॉल कैप कंपनियों में खुलकर निवेश कर नहीं पाता क्योंकि उसकी न्यूनतम खरीद ही छोटी पूंजी वाली इन कंपनियों के लिए इतनी बड़ी होती है कि उनके प्याले में तूफान आ जाता है। शेयर अचानक उछल जाते हैं। इसी तरह बेचने की हालत में खटाक से धड़ाम हो जाते हैं।
इसीलिए स्मॉल कैप कंपनियों को सही तरीके से चुना जाए तो छोटे निवेशक उनसे अच्छा लाभ कमा सकते हैं। लोमड़ी व सारस की कहानी आपने सुनी ही होगी। लोमड़ी सुराही में रखी मछली खा नहीं सकती और सारस प्लेट में पेश दावत लोमड़ी की तरह उड़ा नहीं सकता। लेकिन ध्यान रखना जरूरी है कि स्मॉल कैप स्टॉक्स ब्लूचिप या मिडकैप स्टॉक्स की तुलना में मूलतः ज्यादा रिस्की होते हैं। इसलिए विशेषज्ञ कहते हैं कि छोटे निवेशकों को भी अपने पोर्टफोलियो का कुल 15 फीसदी से ज्यादा स्मॉल कैप स्टॉक्स में नहीं लगाना चाहिए। और, किसी एक स्मॉल कैप स्टॉक में उनके कुल निवेश का अधिकतम 2 से 3 फीसदी ही लगा होना चाहिए। आप विशेषत्रों की इस सलाह को गुनिए-समझिए और दोहराइए निवेश के तीन और सूत्र जो हमने हाल में देखे-समझे…
जीवन का वो सामान्य नियम शेयर बाजार के निवेश पर भी लागू होता है जो कहता है कि गहरे डूबोगे तो मोती पाओगे, छिछले तैरोगे तो झाग ही हाथ लगेगा। निवेश एक यात्रा है जिसमें चलने के साथ-साथ बराबर सीखते रहने की जरूरत है।
ट्रेडिंग के लिए हम ऐसे स्टॉक्स चुनते हैं जो खरीद-फरोख्त के असर से घट-बढ़ सकते हैं, जबकि निवेश में हम ऐसी कंपनियों को चुनते हैं जिनका धंधा पुख्ता आधार पर खड़ा हो और जिसमें बढ़ने की भरपूर गुंजाइश हो। दिक्कत है कि हममें से 99 फीसदी लोग ट्रेडिंग की मानसिकता रखते हैं। छाया के पीछे भागते हैं और माया गंवाते रहते हैं। यह रुख न तो देश की अर्थव्यवस्था और न ही हमारे दीर्घकालिक आर्थिक स्वास्थ्य के लिए अच्छा है। जो बाजार में बैठे हैं, उन्हें जोड़तोड़ और ट्रेडिंग से कमाने दीजिए। हम बाहर बैठकर उनकी नकल नहीं कर सकते। हमें तो अपनी ही अक्ल से काम लेना चाहिए।
हमें इस बात को लेकर कोई भ्रम नहीं होना चाहिए कि सेल मार्केटिंग की एक बाजीगरी है जिसके चलिए उपभोक्ताओं की मानसिकता को भुनाया जाता है। शेयर बाजार में भी हर साल इस तरह की ‘क्लियरेंस’ सेल तीन बार लगती है, जिसमें बेचनेवाले अपना माल निकालते हैं। पहली बजट के आसपास, दूसरी दीवाली पर और तीसरी नई साल की शुरुआत पर। सेल में लोगबाग टूटकर भाग लेते हैं। जब उन्हें कोई रोक नहीं सकता तो आपको कोई कैसे रोक सकता है। हम तो बस इतना कह सकते हैं कि सेल में माल थोड़ा ज्यादा ही देख-परख कर, ठोंक बजाकर लेना चाहिए।